खुली किताब के सफ़्हे उलटते रहते हैं, हवा चले न चले दिन पलटते रहते है
शाम से आंख में नमी सी है, आज फिर आप की कमी सी है
खुली किताब के सफ़्हे उलटते रहते हैं, हवा चले न चले दिन पलटते रहते है
कांच के पीछे चांद भी था और काँच के ऊपर काई भी, तीनों थे हम वो भी थे और मैं भी था तन्हाई भी
हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते, वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते
दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई, जैसे एहसान उतारता है कोई
यूं भी इक बार तो होता कि समुंदर बहता, कोई एहसास तो दरिया की अना का होता
आइना देख कर तसल्ली हुई, हम को इस घर में जानता है कोई
वो उम्र कम कर रहा था मेरी, मैं साल अपने बढ़ा रहा था